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इन बेटियों को नहीं मिलेगा पिता की संपत्ति में हिस्सा, हाईकोर्ट ने फैसल में कर दिया साफ Father’s Property Rights

By Meera Sharma

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Father's Property Rights

Father’s Property Rights: प्रॉपर्टी से जुड़े मामलों में अक्सर लोगों को कानूनी जानकारी का अभाव होता है, जिससे परिवारों में विवाद उत्पन्न हो जाते हैं। हाल ही में बॉम्बे हाईकोर्ट ने एक ऐसा महत्वपूर्ण फैसला सुनाया है, जो पिता की संपत्ति में बेटियों के अधिकार से संबंधित है। इस फैसले के अनुसार, यदि किसी पिता की मृत्यु 1956 में हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम लागू होने से पहले हो गई थी, तो उनकी बेटियों का उनकी संपत्ति पर कोई अधिकार नहीं होगा। यह फैसला न केवल कानूनी रूप से महत्वपूर्ण है, बल्कि सामाजिक परिप्रेक्ष्य में भी इसके दूरगामी प्रभाव हो सकते हैं।

जस्टिस एएस चंदुरकर और जस्टिस जितेंद्र जैन की खंडपीठ ने अपने फैसले में स्पष्ट किया कि चूंकि संबंधित व्यक्ति की मृत्यु अधिनियम लागू होने से पहले हुई थी, इसलिए संपत्ति का विभाजन तत्कालीन प्रचलित कानूनों के अनुसार ही होगा। उस समय के कानूनों में बेटियों को पिता की संपत्ति में उत्तराधिकारी के रूप में मान्यता नहीं दी गई थी, जिसके कारण उन्हें संपत्ति में हिस्सा नहीं मिलेगा।

मामले की पृष्ठभूमि और विवरण

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यह मामला साल 1952 का है, जब यशवंतराव का निधन हो गया था। यशवंतराव के परिवार में उनकी दो पत्नियां और तीन बेटियां थीं। उनकी पहली पत्नी लक्ष्मीबाई का निधन 1930 में हो गया था, जिसके बाद उन्होंने भीकूबाई से दूसरी शादी की थी। भीकूबाई से उनकी एक बेटी चंपूबाई थी। कुछ साल बाद, यशवंतराव की पहली शादी से उनकी बेटी राधाबाई ने अपने पिता की आधी संपत्ति का दावा करते हुए संपत्ति के बंटवारे की मांग करते हुए मुकदमा दायर किया।

इस मामले में, निचली अदालत ने राधाबाई के दावे को खारिज कर दिया था। निचली अदालत का मानना था कि उस समय प्रचलित कानूनों के अनुसार, बेटियों को पिता की संपत्ति में हिस्सा नहीं मिलता था। इस फैसले के खिलाफ राधाबाई ने 1987 में उच्च न्यायालय में अपील की थी, जिससे यह मामला अब बॉम्बे हाईकोर्ट तक पहुंचा।

हिंदू महिला संपत्ति अधिकार अधिनियम, 1937 का प्रभाव

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बॉम्बे हाईकोर्ट ने अपने फैसले में हिंदू महिला संपत्ति अधिकार अधिनियम, 1937 का विश्लेषण किया। इस अधिनियम के अनुसार, केवल दूसरी पत्नी भीकूबाई को ही अपने पति यशवंतराव की संपत्ति विरासत में मिली थी। बाद में, 1956 के हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के लागू होने के साथ, भीकूबाई उस संपत्ति की पूर्ण मालिक बन गईं और उन्हें अपनी एकमात्र बेटी चंपूबाई को वह संपत्ति देने का पूरा अधिकार मिल गया।

1937 के अधिनियम का मुख्य उद्देश्य विधवाओं को उनके सीमित अधिकार प्रदान करके उनकी रक्षा करना था, क्योंकि उस समय विधवाएं अपने माता-पिता के घर वापस नहीं जा सकती थीं और उनके पास देखभाल के लिए कोई और विकल्प नहीं था। हालांकि, इस अधिनियम में बेटियों के अधिकारों के बारे में कोई विशेष प्रावधान नहीं था।

1956 का हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम और उसका महत्व

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1956 में लागू हुए हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम ने हिंदू महिलाओं के संपत्ति अधिकारों में क्रांतिकारी बदलाव लाया। इस अधिनियम के तहत, हिंदू महिलाओं को पहली बार अपने पिता की संपत्ति में उत्तराधिकारी के रूप में मान्यता दी गई। इससे पहले, परंपरागत हिंदू कानून के अनुसार, केवल पुरुष वंशज ही पिता की संपत्ति के उत्तराधिकारी होते थे।

लेकिन इस मामले में, चूंकि यशवंतराव की मृत्यु 1952 में, यानी 1956 के अधिनियम के लागू होने से पहले हो गई थी, इसलिए उनकी संपत्ति का बंटवारा पुराने कानूनों के अनुसार ही होगा। इसका अर्थ है कि यशवंतराव की पहली पत्नी से जन्मी बेटी राधाबाई को उनकी संपत्ति में कोई हिस्सा नहीं मिलेगा।

बॉम्बे हाईकोर्ट के न्यायाधीशों के मतभेद और समाधान

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इस मामले में दिलचस्प बात यह रही कि 1956 का कानून लागू होने से पहले बेटी के अधिकारों को लेकर दोनों न्यायाधीशों – जस्टिस चंदुरकर और जस्टिस जैन के बीच शुरू में मतभेद था। इस मतभेद के कारण, यह मुद्दा दो न्यायाधीशों की एक नई पीठ को भेजा गया था।

न्यायमूर्ति जैन ने अपने निर्णय में 1937 और 1956 के दोनों कानूनों का विस्तृत विश्लेषण किया। उन्होंने कहा कि महिलाओं के संपत्ति अधिकार के लिए 1937 के कानून का उद्देश्य मुख्य रूप से विधवाओं को सुरक्षा प्रदान करना था। इस कानून ने विधवाओं को उनके पति की संपत्ति में एक सीमित हिस्सा दिया, ताकि वे आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर रह सकें।

अंततः, बॉम्बे हाईकोर्ट की खंडपीठ इस निष्कर्ष पर पहुंची कि चूंकि यशवंतराव की मृत्यु 1956 के हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के लागू होने से पहले हुई थी, इसलिए उनकी बेटी राधाबाई को उनकी संपत्ति में कोई अधिकार नहीं होगा। इस प्रकार, राधाबाई की अपील खारिज कर दी गई।

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फैसले का समाज पर प्रभाव और वर्तमान संदर्भ में महत्व

यह फैसला न केवल इस विशेष मामले के लिए, बल्कि समान स्थिति वाले अन्य कई परिवारों के लिए भी महत्वपूर्ण है। भारत में कई ऐसे परिवार हैं, जहां पिता की मृत्यु 1956 से पहले हुई थी और संपत्ति का बंटवारा अभी तक नहीं हुआ है या विवाद चल रहा है। इस फैसले से ऐसे सभी मामलों में एक स्पष्ट दिशा मिलेगी।

हालांकि, यह भी ध्यान देने योग्य है कि वर्तमान में, 2005 में हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम के लागू होने के बाद, बेटियों को पिता की संपत्ति में बेटों के बराबर अधिकार मिलता है। यह महत्वपूर्ण बदलाव महिलाओं के संपत्ति अधिकारों की दिशा में एक बड़ा कदम है और समानता की ओर हमारे समाज की प्रतिबद्धता को दर्शाता है।

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क्या है वर्तमान कानून और महिलाओं के संपत्ति अधिकार

वर्तमान में, 2005 के हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम के तहत, हिंदू परिवार की बेटियों को पिता की संपत्ति में बेटों के बराबर अधिकार प्राप्त है। इस संशोधन ने 1956 के मूल अधिनियम की धारा 6 में बदलाव किया, जिससे बेटियों को सह-उत्तराधिकारी का दर्जा मिला। इसका अर्थ है कि अब बेटियों को भी पिता की संपत्ति में वही अधिकार है, जो बेटों को मिलता है।

यह संशोधन सिर्फ उन परिवारों पर लागू होता है, जहां पिता की मृत्यु 2005 के बाद हुई है या जहां संपत्ति का बंटवारा 2005 तक नहीं हुआ था। इसलिए, बॉम्बे हाईकोर्ट के इस फैसले से यह स्पष्ट होता है कि कानून की व्याख्या और उसके प्रभाव में समय एक महत्वपूर्ण कारक है।

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फैसले से सीखने वाली बातें

इस फैसले से हम सभी के लिए कुछ महत्वपूर्ण सीख मिलती है। सबसे पहले, यह स्पष्ट होता है कि कानूनी मामलों में समय और कानून के लागू होने की तारीख बहुत महत्वपूर्ण होती है। दूसरे, इससे यह भी पता चलता है कि समाज और कानून लगातार विकसित होते रहते हैं, और आज के समय में महिलाओं के अधिकार पहले की तुलना में कहीं अधिक मजबूत हैं।

इसके अलावा, यह फैसला हमें प्रॉपर्टी से जुड़े कानूनों की जानकारी रखने के महत्व को भी बताता है। अगर परिवार के सभी सदस्य अपने अधिकारों और कर्तव्यों से परिचित होते, तो कई विवादों से बचा जा सकता है और परिवार में सौहार्द बना रहता है।

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बॉम्बे हाईकोर्ट का यह फैसला हिंदू महिलाओं के संपत्ति अधिकारों के इतिहास और विकास को समझने में महत्वपूर्ण है। इससे यह स्पष्ट होता है कि 1956 से पहले, हिंदू कानून में बेटियों को पिता की संपत्ति में उत्तराधिकारी के रूप में मान्यता नहीं दी गई थी। हालांकि, आज के समय में, कानून ने महिलाओं के अधिकारों को मजबूत किया है और उन्हें पुरुषों के बराबर संपत्ति अधिकार दिए हैं।

इस फैसले से यह भी पता चलता है कि कानूनी व्यवस्था में परिवर्तन एक धीमी प्रक्रिया है और समाज के विकास के साथ-साथ कानून भी विकसित होते हैं। आज हम एक ऐसे समाज की ओर बढ़ रहे हैं, जहां लिंग के आधार पर भेदभाव को कम किया जा रहा है और सभी को समान अधिकार दिए जा रहे हैं।

Disclaimer

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यह लेख केवल सूचनात्मक उद्देश्यों के लिए है और इसे कानूनी सलाह के रूप में नहीं लिया जाना चाहिए। प्रॉपर्टी से जुड़े किसी भी विवाद या समस्या के लिए, एक योग्य कानूनी सलाहकार से परामर्श करना उचित होगा। लेख में दी गई जानकारी सामान्य है और विशिष्ट मामलों में भिन्न हो सकती है। प्रत्येक मामले के तथ्य और परिस्थितियां अलग-अलग होती हैं, इसलिए व्यक्तिगत मामलों के लिए विशेषज्ञ की राय लेना आवश्यक है।

Meera Sharma

Meera Sharma is a talented writer and editor at a top news portal, shining with her concise takes on government schemes, news, tech, and automobiles. Her engaging style and sharp insights make her a beloved voice in journalism.

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